नई दिल्ली: दिल्ली हाईकोर्ट ने एक अहम फैसले में साफ कर दिया है कि मर्द अपनी मर्जी से लिए गए लोन या EMI का हवाला देकर पत्नी और बच्चे की देखभाल की जिम्मेदारी से नहीं भाग सकते. कोर्ट ने कहा कि पत्नी और बच्चों की मेंटेनेंस देना एक कानूनी दायित्व है, जिसे किसी भी ‘वॉलंटरी फाइनेंशियल कमिटमेंट’ के बहाने से टाला नहीं जा सकता. ये फैसला दिल्ली हाईकोर्ट की जस्टिस नवीन चावला और रेनू भटनागर की पीठ ने 26 मई को सुनाया. मामला एक शख्स की याचिका से जुड़ा था, जिसने ट्रायल कोर्ट के उस आदेश को चुनौती दी थी जिसमें उसे अपनी अलग रह रही पत्नी को ₹8,000 और बेटे को ₹7,000 यानी कुल ₹15,000 प्रति माह अंतरिम मेंटेनेंस देने को कहा गया था.
याचिकाकर्ता ने दावा किया कि उसका वेतन सीमित है और वह कॉन्ट्रैक्ट बेसिस पर काम करता है. साथ ही वह हर महीने कुछ लोन की EMI, घर का किराया, बिजली बिल और मेडिक्लेम प्रीमियम भरता है, जिसमें उसकी पत्नी और बेटे का भी नाम शामिल है. इसलिए मेंटेनेंस देने की उसकी स्थिति नहीं है.
कानून के अनुसार पहली जिम्मेदारी परिवार की देखभाल
क्या था मामला?
यह फैसला क्यों है अहम?
देशभर में मेंटेनेंस मामलों में यह तर्क अकसर सामने आता है कि पति की आर्थिक स्थिति कमजोर है, इसलिए वह मेंटेनेंस नहीं दे सकता. लेकिन इस फैसले के बाद अब यह साफ हो गया है कि कमाई चाहे जितनी हो, पत्नी और बच्चे की देखभाल सबसे पहली कानूनी जिम्मेदारी है. इसे नजरअंदाज करना या उससे बचना अब आसान नहीं होगा.
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