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Monday, June 23, 2025
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दिल्ली हाईकोर्ट: पत्नी और बच्चों की देखभाल से नहीं भाग सकते मर्द.


नई दिल्ली: दिल्ली हाईकोर्ट ने एक अहम फैसले में साफ कर दिया है कि मर्द अपनी मर्जी से लिए गए लोन या EMI का हवाला देकर पत्नी और बच्चे की देखभाल की जिम्मेदारी से नहीं भाग सकते. कोर्ट ने कहा कि पत्नी और बच्चों की मेंटेनेंस देना एक कानूनी दायित्व है, जिसे किसी भी ‘वॉलंटरी फाइनेंशियल कमिटमेंट’ के बहाने से टाला नहीं जा सकता. ये फैसला दिल्ली हाईकोर्ट की जस्टिस नवीन चावला और रेनू भटनागर की पीठ ने 26 मई को सुनाया. मामला एक शख्स की याचिका से जुड़ा था, जिसने ट्रायल कोर्ट के उस आदेश को चुनौती दी थी जिसमें उसे अपनी अलग रह रही पत्नी को ₹8,000 और बेटे को ₹7,000 यानी कुल ₹15,000 प्रति माह अंतरिम मेंटेनेंस देने को कहा गया था.

EMI और मेडिक्लेम का तर्क नहीं माना गया

याचिकाकर्ता ने दावा किया कि उसका वेतन सीमित है और वह कॉन्ट्रैक्ट बेसिस पर काम करता है. साथ ही वह हर महीने कुछ लोन की EMI, घर का किराया, बिजली बिल और मेडिक्लेम प्रीमियम भरता है, जिसमें उसकी पत्नी और बेटे का भी नाम शामिल है. इसलिए मेंटेनेंस देने की उसकी स्थिति नहीं है.

लेकिन कोर्ट ने इसे सिरे से खारिज करते हुए कहा कि मर्द इस तरह के खर्चे दिखाकर अपनी कमाई को ‘कृत्रिम रूप से कम’ नहीं कर सकते, ताकि उन्हें मेंटेनेंस देने से राहत मिल जाए. जजों ने कहा कि ये सभी खर्च; जैसे कि पर्सनल लोन की EMI, जीवन बीमा की किश्तें, बिजली बिल या किराया… ऐसे स्वैच्छिक वित्तीय दायित्व हैं जो व्यक्ति ने खुद तय किए हैं और ये मेंटेनेंस देने के कानूनी दायित्व से ऊपर नहीं हो सकते.

कानून के अनुसार पहली जिम्मेदारी परिवार की देखभाल

कोर्ट ने दो टूक कहा, ‘एक व्यक्ति अपनी पत्नी और बच्चों की देखभाल से इसलिए पीछे नहीं हट सकता कि उसने अपने ऊपर कुछ अतिरिक्त खर्चे खुद ही मढ़ लिए.’ कोर्ट ने माना कि पति की सबसे पहली जिम्मेदारी उसकी पत्नी और बच्चों की है, न कि अपनी मर्जी से लिए गए लोन या बीमा की.

क्या था मामला?

इस केस में पति-पत्नी की शादी फरवरी 2009 में हुई थी और दोनों मार्च 2020 से अलग रह रहे हैं. उनका एक बेटा भी है. पत्नी ने फैमिली कोर्ट में याचिका दायर कर ₹30,000 प्रति माह अंतरिम मेंटेनेंस मांगा था, जिस पर कोर्ट ने ₹15,000 तय किया. पति ने इसके खिलाफ हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया, लेकिन हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के आदेश को सही ठहराया.

यह फैसला क्यों है अहम?

देशभर में मेंटेनेंस मामलों में यह तर्क अकसर सामने आता है कि पति की आर्थिक स्थिति कमजोर है, इसलिए वह मेंटेनेंस नहीं दे सकता. लेकिन इस फैसले के बाद अब यह साफ हो गया है कि कमाई चाहे जितनी हो, पत्नी और बच्चे की देखभाल सबसे पहली कानूनी जिम्मेदारी है. इसे नजरअंदाज करना या उससे बचना अब आसान नहीं होगा.



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