यहां एक पुस्तक विमोचन समारोह को संबोधित करते हुए भागवत ने कहा कि भारत सहित विश्व के सामने आज जो समस्याएं हैं, वे पिछले 2000 वर्षों से अपनाई जा रही उस व्यवस्था का परिणाम हैं, जो विकास और सुख की खंडित दृष्टि पर आधारित रही हैं. उन्होंने कहा, “हम इस स्थिति से मुंह नहीं मोड़ सकते. हमें इससे बाहर निकलने के लिए जो भी जरूरी हो, वह करना होगा. लेकिन हम आंख मूंदकर आगे नहीं बढ़ सकते.”
उन्होंने कहा कि भारत को जीवन के चार लक्ष्यों – ‘अर्थ’ (धन), ‘काम’ (इच्छा और आनंद) और ‘मोक्ष’ (मुक्ति) के अपने सदियों पुराने दृष्टिकोण का पालन करना चाहिए, जो ‘धर्म’ से बंधा हो और “यह सुनिश्चित करता हो कि कोई भी पीछे न छूटे”.
भागवत ने किसी का नाम लिए बिना कहा, “हर किसी के अलग-अलग हित हैं… इसलिए संघर्ष जारी रहेगा. लेकिन फिर, सिर्फ राष्ट्र हित ही मायने नहीं रखता. मेरा भी हित है. मैं सब कुछ अपने हाथ में रखना चाहता हूं.” उन्होंने कहा, “खाद्य श्रृंखला में जो सबसे ऊपर है, वह सबको खा जाएगा, और खाद्य श्रृंखला में सबसे नीचे रहना अपराध है.”
भागवत ने कहा कि यदि भारत विश्वगुरु और विश्वमित्र बनना चाहता है तो उसे अपने दृष्टिकोण के आधार पर अपना रास्ता स्वयं बनाना होगा. उन्होंने कहा, “अगर हम इसे प्रबंधित करना चाहते हैं, तो हमें अपने दृष्टिकोण से सोचना होगा. सौभाग्य से, हमारे देश का दृष्टिकोण पारंपरिक है… जीवन के प्रति यह दृष्टिकोण पुराना नहीं है; यह ‘सनातन’ है. यह हमारे पूर्वजों के हजारों वर्षों के अनुभवों से आकार लेता है.”
उन्होंने कहा, “हमारे दृष्टिकोण ने अर्थ और काम को रद्द नहीं किया है. इसके विपरीत, यह जीवन में अनिवार्य है. जीवन के चार लक्ष्यों में धन और काम शामिल हैं. लेकिन यह धर्म से बंधा है. धर्म का अर्थ पूजा पद्धति नहीं है.” भागवत ने कहा, “और जो नियम इन सब पर नजर रखता है, वह प्राकृतिक नियम है, यह सुनिश्चित करता है कि कोई भी पीछे न छूटे. इसका पालन करें. इसके अनुशासन का पालन करें.”
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